‘वैलेंटाइन डे’ अर्थात् शूपर्णखाँ संस्कृति
नई दिल्ली । शूपर्णखाँ रामायण का एक विलक्षण नारी पात्र है। वह लंका के राजा रावण की लाड़ली बहिन थी। रावण ने क्षणिक क्रोध के वशीभूत होकर उसके पति विद्युत्जिह्व की हत्या कर दी थी। इस कारण रावण उससे डरता था और उसकी मनमानियों को सहन करता था। इसलिए अपने भाई की तरह ही वह भी निरंकुश हो गयी थी और समाज में आतंक फैला रखा था। कोई भी वस्तु या व्यक्ति उसे पसन्द आने पर उसको हस्तगत करके ही वह संतुष्ट होती थी।
इसी क्रम में एक दिन जंगल में विचरण करते समय उसने भगवान श्रीराम को देखा। देखते ही उन पर मोहित हो गयी और सोचने लगी कि यह पुरुष तो मुझे मिलना ही चाहिए। बिना आगा-पीछा सोचे ही वह सीधे श्रीराम के पास पहुँच गयी और अपना मंतव्य इन शब्दों में प्रकट किया-
तुम सम पुरुष न मो सम नारी।
यह संयोग विधि रचा बिचारी।।
उसने यह भी नहीं सोचा कि श्रीराम के साथ उनकी धर्मपत्नी सीताजी हैं और किसी अन्य महिला की ओर आकर्षित होना मर्यादाओं के विपरीत होगा। श्रीराम के समझाने-बुझाने का भी उस पर कोई असर नहीं हुआ। शूपर्णखाँ की अपनी हर इच्छा पूरी करने की जिद के कारण ही उसका अपमान हुआ और आगे खर-दूषण का वध हुआ, सीताजी का हरण हुआ, राम-रावण युद्ध हुआ और सम्पूर्ण राक्षस संस्कृति का विनाश हुआ।
आज वही शूपर्णखाँ संस्कृति ‘वैलेंटाइन डे’ के रूप में हमारे सामने है। इस संस्कृति का मूल मंत्र है- ‘तुम सम पुरुष न मो सम नारी।’ या इसका उल्टा भी हो सकता है- ‘मो सम पुरुष न तुम सम नारी।’ कहने का तात्पर्य है कि किसी भी महिला या पुरुष की ओर आकर्षित हो जाना और उसे किसी भी कीमत पर प्राप्त करने की इच्छा होना ही शूपर्णखाँ संस्कृति है। इस इच्छा को पूरा करने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं, समाज की मर्यादाओं को तार-तार कर सकते हैं और समाज को कितनी भी हानि पहुँचा सकते हैं। इसलिए इस संस्कृति को वास्तव में विकृति ही कहना चाहिए।
इस विकृति के अनेक रूप हमें दिखायी पड़ते हैं। अपने मन पसन्द व्यक्ति (महिला या पुरुष) के पीछे हाथ धोकर पड़ जाना, उसे तरह-तरह से प्रभावित करने की उचित-अनुचित हरकतें करना, समाज में अश्लीलता फैलाना और प्रभावित करने में असफल रह जाने पर अपराध तक कर डालना इस विकृति के कुछ रूप हैं।
अत्यन्त खेद जनक है कि हमारी किशोर और युवा पीढ़ी शूपर्णखाँ संस्कृति के जाल में बुरी तरह फँसी हुई है। अपने जीवन का जो बहुमूल्य समय उन्हें ज्ञान प्राप्त करने, अपना स्वास्थ्य बनाने तथा देश की सेवा हेतु स्वयं को तैयार करने में लगाना चाहिए, उस समय को वे इस निरर्थक संस्कृति की भेंट चढ़ा देते हैं। हर साल 14 फरवरी के आसपास इस संस्कृति का ज्वार आता है। यह समय परीक्षाओं की तैयारी करने और पढ़ाई में कठिन परिश्रम करने के लिए आदर्श होता है, परन्तु ऐसा करने के बजाय आज की नई पीढ़ी इसको इस निरर्थक परम्परा के पालन में नष्ट कर देती है।
यदि इतना ही होता, तो गनीमत थी। खेद तो यह है कि अपनी इच्छा पूर्ति में असफल रह जाने वाले व्यक्ति हताशा में गलत से गलत कार्य और अपराध तक कर डालते हैं। अन्य व्यक्ति द्वारा प्रणय निवेदन ठुकराने पर हमला करना, तेजाब फेंकना, हत्या करना और उससे भी बढ़कर आत्महत्या तक कर डालना ऐसी प्रतिक्रियाओं के कुछ रूप हैं। प्रणय निवेदन स्वीकार होने पर अनुचित और समय-पूर्व शारीरिक सम्बंध बना लेना भी एक अपराध ही है, क्योंकि इसका कुपरिणाम उन्हें और सम्पूर्ण समाज को आगे चलकर भुगतना पड़ता है।
केवल अपनी प्रसार या दर्शक संख्या और विज्ञापनों के रूप में धन कमाने पर ध्यान रखने वाले समाचार पत्र और समाचार चैनल इस विकृति को बढ़ावा देने के सबसे बड़े अपराधी हैं। वे यह नहीं सोचते कि इस बेकार की परम्परा से समाज की जड़ें खोखली हो रही हैं, समाज में अमर्यादित आचरण फैल रहा है, जिसके कारण अपराधों की बाढ़ आ गयी है। आये दिन यौन-अपराधों के जो समाचार आते रहते हैं उनकी जड़ में कहीं न कहीं समाचार पत्रों और चैनलों द्वारा फैलायी गयी अपसंस्कृति ही मूल कारण होती है।
किशोरों-किशोरियों के माता-पिता इस मामले में पूरी तरह असहाय होते हैं। किसी भी व्यक्ति के लिए अपनी संतानों पर दिन-रात नजर रखना न तो सम्भव है और न व्यावहारिक ही। यह तो नई पीढ़ी को स्वयं सोचना चाहिए कि इस अप-संस्कृति में फँसने के कारण उनके स्वास्थ्य, कैरियर और पारिवारिक जीवन को कितनी हानि पहुँच रही है। यह विकृति हमारी नई पीढ़ी को खोखला कर रही है। आज का युवा वर्ग अपनी महान् भारतीय संस्कृति की मर्यादाओं को तोड़ रहा है और इतना असहनशील हो गया है कि थोड़ी सी निराशा में बुरी से बुरी प्रतिक्रिया कर डालता है।
भारतीय सेना में योग्य अफसरों की कमी अकारण ही नहीं है। इसका मूल कारण यही है कि आज का युवा वर्ग शारीरिक और मानसिक बल बढ़ाने के बजाय नारी वर्ग की तरह बाहरी सौंदर्य और ग्लैमर के पीछे दीवाना हो गया है। एक बार जब इंग्लैंड की सेनाओं ने फ्रांस को युद्ध में बुरी तरह हराया था, तो कई विद्वानों ने टिप्पणी की थी कि फ्रांस की पराजय युद्ध भूमि में नहीं बल्कि पेरिस ने नृत्यगृहों में हुई है, क्योंकि उस समय फ्रांस का युवा वर्ग नाचघरों के जाल में फँसा हुआ था और अपने राष्ट्रीय दायित्वों के प्रति लापरवाह था। वह दिन हमारे देश के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा यदि कभी हमें भी इससे मिलती-जुलती टिप्पणी करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
अब समय आ गया है कि देश के कर्णधार, राजनेता, विचारक, साहित्यकार, समाचार पत्र, समाचार चैनल और शिक्षक वर्ग इस अप-संस्कृति के विनाशकारी परिणामों को पहचाने और इस पर रोक लगाये। यह कार्य कानून बनाने से नहीं होगा, बल्कि नई पीढ़ी को उचित शिक्षा देने और उनका सही मार्गदर्शन करने से ही होगा। इस विकृति की रोकथाम किये बिना युवा पीढ़ी को और उसके परिणाम- स्वरूप देश को विनाश की ओर जाने से बचाने का और कोई उपाय नहीं है। इसमें जितनी देर की जायेगी, परिणाम उतना ही भयावह होगा।