न्यूनतम मजदूरी ₹300 से भी कम है,जबकि एक कप आभिजात्य कॉफी की कीमत भी इससे ज्यादा है।
 
                नई दिल्ली।चुनावी व्यस्तताओं के बीच अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस भी आया और चला गया। यूं तो साल के 365 दिन यह देश कोई न कोई राष्ट्रीय अथवा अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाते रहता हैं। बाल दिवस,वृद्ध दिवस, महिला दिवस, किसान दिवस पर्यावरण दिवस वगैरह वगैरह। अब तो हालात यह हैं कि 365 दिन भी कम पड़ गए हैं। एक ही तारीख को में कई अलग-अलग राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय दिवस पड़ रहे हैं, किसे मनाएं और किसे छोड़ें ? पर क्या सचमुच हमारे देश की सरकारें और हम स्वयं इन तमाम गंभीर सामाजिक, आर्थिक तथा पर्यावरण संबंधी मुद्दों के प्रति गंभीर हैं? देश के प्राथमिकताओं में ये मुद्दे कहां हैं ? राजनीतिक पार्टियों की घोषणा-पत्रों संकल्प-पत्रों एवं गारंटियों में यह मुद्दे कहां हैं? इन यक्ष प्रश्नों पर विचार क्यों नहीं होना चाहिए? हमारे देश में चुनाव-पर्व कमोवेश पूरे साल निरंतर जारी रहता है। विधानसभा लोकसभा राज्यसभा के अलावा ग्राम पंचायतों के चुनाव, विभिन्न स्थानीय निकायों के चुनाव, नगर पालिका, निगम , कार्पोरेशनों के चुनाव,नाना प्रकार की सहकारी समितियों, सोसाइटीज के चुनावों में देश लगातार व्यस्त रहता है। हालिया लोकसभा के चुनाव चक्र में राजनीतिक पार्टियां पिछले कई महीनो से पूरे देश को मथ रही हैं। एक-एक रैली पर करोंड़ों अरबों रुपए खर्च हो रहे हैं। कुल मिलाकर अरबों-खरबों अनगिनत रुपए इन चुनावों के नाम पर खर्च किए जा रहे हैं। दूसरी ओर चुनाव के नाम पर समस्त सरकारी मशीनरियां पंगु बनी हुई हैं। कहीं कोई सार्थक कार्य इंच भर आगे बढ़ता नहीं दिखता। कहा जाता है कि अब जो कुछ भी होगा चुनाव के बाद ही होगा। पर ये चुनाव तो सतत चलते ही रहेंगे। इन खर्चीले चुनावों के संपन्न होने के बाद दरअसल होता क्या है। अपवादों को छोड़कर,,, इसमें जो प्रत्याशी जीतेंगे, वह सबसे पहले चुनाव में खर्च की गई अपनी संपूर्ण रकम मय ब्याज के इसी सिस्टम से येन केन प्रकरेण वसूलेंगे । उसके बाद अपने आगामी चुनावों के लिए तथा आगे अपनी संतानों के चुनाव खर्च की अग्रिम व्यवस्था के लिए भी धन जनता की योजनाओं से ही चूसा जाएगा। सदा की तरह ये सारे चयनित जनसेवक भी देखते-देखते लोकतंत्र का पारस पत्थर घिसकर अमीर हो जाएंगे और आगे भी, हमारे आपके जैसे लोग इसी तरह मजदूर दिवस,किसान दिवस मनाते और जिंदाबाद मुर्दाबाद करते रह जाएंगे।
अगर ऐसा नहीं होता तो आजादी के 77 सालों बाद भी हमारे एक मजदूर की दैनिक मजदूरी एक कप अच्छी कॉफ़ी की कीमत से भी कम ना होती। देश में न्यूनतम मजदूरी ₹300 से भी काम मिल रही है जबकि आज आभिजात्य काफी हाउस के एक कप कॉफी की कीमत इससे ज्यादा है। सालों साल मजदूर दिवस बनाने और जिंदाबाद का पुरजोर नारा लगाने के बावजूद आज भी मजदूर ना तो ढंग से जिंदा रहने के लिए अपनी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति कर पा रहा है नाही अपना स्वाभिमान बचा पा रहा है, और ना ही कहीं आबाद हो पा रहा है। मजदूरों की बात हुई तो भारत में सबसे दयनीय मजदूर तो भारत का किसान है। किसान की ना तो काम की घंटे तय होते हैं ना ही संडे मंडे की कोई छुट्टी होती है। उसे तो कड़कड़ाती ठंड में चार डिग्री में भी पानी लगाने के लिए आधी रात को भी खेत पर जाना ही पड़ेगा। 48 डिग्री में भी चाहे चिलचिलाती धूप हो ,लू चल रही हो उसे हर हाल में खेतों में पसीना बहाना ही पड़ेगा। इनको कोई केजुअल अथवा मेडिकल लीव नहीं मिलती। कुपोषण के मारे ये किसान 40 साल की उम्र में ही बूढ़े हो जाते हैं। अब एक बार हम यह भी आकलन कर लें कि इस कठोर परिश्रम व नारकीय जीवन के बदले में उसे मिल क्या रहा है ? क्या उन्हें उनकी मजदूरी भी मिल पा रही है। पांच आदमी के परिवार के एक व्यक्ति की न्यूनतम औसत मजदूरी ₹300 प्रति दिन भी गिना जाए, और साल की 200 दिनों की मजदूरी जोड़ी जाए तो साल में एक किसान परिवार को खेती में उसकी लागत और उस पर देय 50% फायदे को छोड़कर कम से कम ₹3 तीन लाख रूपए तो उसके और उसके परिवार की मजदूरी के ही मिलने चाहिए। परंतु देश का पेट भरने वाले अन्नदाता किसान को असल में क्या और कितना मिल रहा है उसकी बानगी पेश करनाचाहूंगा देश में किसान परिवार की वर्तमान औसत मासिक आय केवल 10,218 हजार रुपए है। जबकि झारखंड के किसान परिवार की औसत आय मात्र 4,895 हजार रूपए प्रति माह है। इसका मतलब यह हुआ कि झारखंड के पूरे किसान परिवार की एक दिन की आमदनी लगभग 160 रुपए है। हमारे गांव का औसत परिवार पांच आदमियों का माना जाता है इसका तात्पर्य हुआ कि एक व्यक्ति के हिस्से में रोजाना लगभग 30 तीस रुपए ही आ रहे हैं। इस ₹30 में ही उसे दोनों टाईम अपना पेट भी भरना है, तन भी ढकना है, सामाजिक रिश्तों को भी निभाना हैं, बच्चों को पढ़ाना लिखाना है, बूढ़े अशक्त मां-बाप पालने हैं अपने व परिवार का इलाज भी करवाना है, जबकि आज एक अच्छी सिगरेट की कीमत इससे ज्यादा है।
ओडिसा, पश्चिम बंगाल और बिहार तथा अन्य राज्यों के किसानों की स्थिति भी इससे कोई खास बेहतर नहीं है। सरकार वादा करने के बावजूद किसानों को उनके उत्पादन की न्यूनतम लागत (C2+FL) पर 50% मुनाफा के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करके उन्हें यह बाजिब मूल्य व्यापारियों से दिलवाने हेतु जरूरी एसपी गारंटी कानून भी नहीं ला रही है। हकीकत तो यह है कि सरकार और बाजार दोनों मिलकर किसान का लगातार शोषण करते आए हैं। किसान के परिश्रम व पसीने को वाजिब मूल्य देने के नाम पर बाजार और सरकार दोनों को सांप सूंघ जाता है।
नौकरी पेशा मध्यम वर्ग की हालत भी बहुत खराब है। पिछले कई सालों से इनकम टैक्स स्लैब में कोई प्रभावी बदलाव नहीं आया है जबकि महंगाई सूचकांक 50% से भी ज्यादा बढ़ चुका है। मध्यवर्गीय नौकरी पेशा व्यक्ति की साल में 2 महीने की मजदूरी अथवा वेतन सरकार हड़प ले रही है। इससे पच्चीसों हजार करोड़ खर्च करके नई संसद बना रहे हैं और ऐसे ही ढेर सारे अनुत्पादक कार्यों में इन करोड़ों कामगारों की खून पसीने की कमाई लुटाई जा रही है। हमारे नेता और उनकी नीतियां हमारे किसानों मजदूरों कामगारों की स्थिति को तमाम वादों और जुमलों के बावजूद क्यों नहीं सुधार पा रही हैं। क्योंकि ये चंद पूंजीपतियों की दलाल सरकारें वैसा चाहती ही नहीं। इनकी नीतियों के कारण गरीब दिनों दिन और गरीब तथा अमीर दिनों दिन और अमीर होते जा रहे हैं। देश के सारा पैसा, संपत्ति और संसाधन मुट्ठी भर धन्ना सेठों की तिजोरियों में कैद होते जा रहा है। अब अपने आप से यह पूछने का वक्त आ गया है कि क्या यही दिन देखने के लिए हमारे पूर्वजों ने अपनी जान पर खेलकर, लाठी, डंडे, गोली खाकर, जेल में चक्की पीसकर, अपना खून पसीना बहा कर ,अनगिनत जानें देकर यह आजादी हासिल की थी? और अरबों-खरबों रुपए खर्च कर कराए जा रहे इन चुनावों से बहुसंख्यक किसान,मजदूर,कामगार परिवारों को क्या फायदा ? जब चुनाव के बाद जनता की सेवा के लिए अवसर मांगने वाले ये जन प्रतिनिधि चुनाव जीतने के चंद दिनों में ही येन केन प्रकरेण देखते-देखते करोड़पति अरबपति हो जाएंगे और अब तक चली आ रही नीति और रीति के अनुसार फिर ऐसी नीतियां और योजनाएं बनाएंगे जिससे कामगार,किसान बस किसी तरह जिंदा रहे और मरने ना पाए लेकिन दिनों-दिन गरीब और गरीब होता जाए और अमीर दिनोंदिन और अमीर। और इस सड़े-गले घुन लगे लोकतंत्र के अंतिम पायदान पर खड़ी जनता इन नकली जनसेवक नेताओं और उनके मुट्ठी भर चुनिंदा आकाओं की पालकी ढोता रहे। शायद यह अंतिम सही वक्त है कि अब किसान,मजदूर कामगार, नौकरीपेशा वर्ग एक साथ बैठकर यह तय करें की क्या लोकतंत्र का वर्तमान स्वरूप, यह रीढ़ विहीन चुनावी तंत्र और ये मंहगे चुनावी ड्रामे अब हमारे लिए बेसुरे, बेमानी और निरर्थक हो गए हैं। और शायद हमारे संपूर्ण सिस्टम की पुनर्समीक्षा करने तथा बेहतर वैकल्पिक व्यवस्था के चयन हेतु विचारमंथन तथा इस संपूर्ण व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन करने का वक्त अब आ गया है। 





















































































 
                                         
                                         
                                         
                                        