संतोष उपाध्याय ने बनाई रियल स्टोरी पर फिल्म ‘मासूम सवाल: द अनबियरेबल पेन’
नई दिल्ली। संतोष उपाध्याय के पास कई लोग अपने भाग्य के बारे में जानने हैं और अपनी कई समस्याओं को भी उनके समक्ष रखते हैं, ऐसे में एक दिन एक 12 साल की लड़की उनके पास अपनी समस्या लेकर आई, जो उसके पहले मासिक धर्म के बाद शुरू होती है. उस लड़की की बातों को सुनने के बाद संतोष काफी भावुक हो जाते हैं और वह फैसला करते हैं कि उनकी कहानी को वह बड़े पर्दे के माध्यम से लोगों तक पहुंचाएंगे. साथ ही उन्होंने जो सोचा, उसे पूरा भी किया और ‘मासूम सवाल: द अनबियरेबल पेन’ नाम की एक फिल्म बना डाली.
इस फिल्म को बनाने के पीछे का संतोष का सबसे बड़ा उद्देश्य यही है कि वह मासिक धर्म से जुड़े ऐसे कई सवाल हैं, जिनके जवाब वह फिल्म के जरिए लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं और इस प्रथा से जुड़े अपने संदेश को हर जगह फैलाना चाहते हैं. फिल्म ‘मासूम सवाल: द अनबियरेबल पेन’ की कहानी एक बच्ची के इर्दगिर्द घूमती है, जिसे बचपन में जब वो अपने भाई को खोजती है तब घर वाले श्रीकृष्ण को उसका भाई बता देते हैं. 14 साल की होने तक जिसके साथ वो खेलती थी, पहली माहवारी के बाद उन्हीं श्रीकृष्ण के विग्रह को छू देने से जैसे उसने पाप कर दिया. इसके बाद शुरू हुए हंगामे और दिक्कतों की कहानी है फिल्म ‘मासूम सवाल: द अनबियरेबल पेन’.
इस फिल्मों की शूटिंग वृंदावन में 35 दिनों में पूरी हुई है. फिलहाल फिल्म के पोस्ट प्रोडक्शन का काम चल रहा है और जल्द ही यह फिल्म सिनेमाघरों में दस्तक देने वाली है. नक्षत्र 27 मीडिया प्रोडक्शन के बैनर तले इस फिल्म का निर्माण रंजना उपाध्याय ने किया है. फिल्म में शामिल कलाकारों की बात करें तो नितांशी गोयल, मन्नत दुग्गल, मोहा चौधरी, वृन्दा त्रिवेदी, रोहित तिवारी, राम जी बाली, गार्गी बनर्जी, एकावली खन्ना, शिशिर शर्मा और मधु सचदेवा अहम भूमिकाओं में हैं.
अपनी फिल्म ‘मासूम सवाल: द अनबियरेबल पेन’ के बारे में कहानीकार और निर्देशक संतोष उपाध्याय कहते हैं, ‘जैसा कि, फिल्म का टाइटल, ‘मासूम सवाल’ अपने आप में ही सब कुछ बयां करता है कि ये कहानी है एक छोटी सी बच्ची और उसके मासूम सवालों की. आखिर क्यों एक बच्ची माहवारी में भगवान की मूर्ति को स्पर्श नहीं कर सकती, जिसे वो भगवान मानती ही नहीं. भाई मानती आ रही है. आखिर कैसे महावारी के दौरान वो अशुद्ध हो जाती है? क्यों उसे इन दिनों में कड़े और अलग तरह के नियमों का पालन करने पर मजबूर होना पड़ता है? ये वो सवाल हैं जो आज की पीढ़ी के जहन में उठ सकते हैं, वो पीढ़ी जो आज कहीं ज्यादा आजादी से जी सकती है. जब एक महिला अपनी महावारी से गुजर रही होती है तो उसकी पीड़ा असहनीय होती है और मेरा मानना है कि ऐसे वक्त में उस पर लादी गई रूढ़िवादी सोच और रोक-टोक उसके दर्द को कई गुना और बढ़ा देती है. आप आज के सिनेमा को देखें तो उसके कंटेंट में एक सशक्त बदलाव आया है, दर्शक आज अलग तरह के कंटेन्ट की मांग कर रहा है. फिल्म की कहानियां सिर्फ प्रेम कहानियों से कहीं आगे और विषयों की ओर बढ़ रही हैं, फिर वो कोई सामाजिक विषय हो या ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की कहानी. मैं इसे मॉडर्न सिनेमा कहूंगा’
निर्देशक संतोष उपाध्याय अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘मुझे खुशी और गर्व है कि मैं इस वक्त में ऐसे विषय पर फिल्म बना सका. ऐसा विषय जो बेहद संवेदनशील है, वो विषय जो पुरानी कुरीतियों और पाबंदियों पर सवाल उठाता है. मैं यकीन से कहता हूं कि ये फिल्म दर्शकों के मन में गहरी छाप छोड़ेगी. फिल्म देखने के दौरान और उसके बाद लोग अपने मन में सवाल करेंगे कि महावारी के ऐसे नियमों को क्यों न बदल दिया जाए, क्यों न हम इन बदलावों को अपनाएं जो इस असहनीय पीड़ा को कम कर सकते हैं.’