मुंबई लोकल में पीक आवर के दौरान दरवाज़े पर खड़ा होना मजबूरी, इसे लापरवाही नहीं माना जा सकता: बॉम्बे हाईकोर्ट
मुंबई में लोकल ट्रेनों में सफर करने वाले लाखों यात्रियों की रोजमर्रा की हकीकत को स्वीकार करते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाया है। अदालत ने साफ कहा है कि पीक आवर के दौरान भीड़ के चलते ट्रेन के दरवाज़े पर खड़ा होना यात्रियों की मजबूरी है, इसे लापरवाही नहीं कहा जा सकता। कोर्ट ने इस आधार पर रेलवे की अपील खारिज करते हुए पीड़ित परिवार को दिया गया मुआवज़ा बरकरार रखा।
जस्टिस जितेंद्र जैन की एकल पीठ ने कहा कि वसई-विरार और चर्चगेट रूट पर सुबह के समय ट्रेनों में अत्यधिक भीड़ होती है। कई बार हालात ऐसे होते हैं कि प्लेटफॉर्म पर भी पैर रखने की जगह नहीं मिलती, ऐसे में यात्रियों के पास दरवाज़े पर खड़े होकर यात्रा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। अदालत ने कहा कि इस ज़मीनी सच्चाई से आंख मूंदकर यात्रियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
कोर्ट ने माना कि 2005 से लेकर अब तक लोकल ट्रेन यात्रा की परिस्थितियों में कोई ठोस सुधार नहीं हुआ है। भायंदर जैसे स्टेशनों पर ट्रेन में चढ़ना अपने आप में एक चुनौती है। अदालत ने टिप्पणी की कि यदि किसी व्यक्ति को रोज़ी-रोटी के लिए दफ्तर या काम पर पहुंचना है और डिब्बों में जगह नहीं है, तो वह मजबूरी में इस जोखिम को स्वीकार करता है, न कि लापरवाहीवश।
रेलवे की इस दलील को भी अदालत ने खारिज कर दिया कि दरवाज़े पर खड़े होकर यात्रा करना नियमों का उल्लंघन है और इसे “अनटुवर्ड इंसीडेंट” नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो भीड़ की वजह से दरवाज़े पर खड़े यात्री के साथ हुई दुर्घटना को मुआवज़े के दायरे से बाहर करता हो। अदालत ने इसे एक अप्रत्याशित हादसा मानते हुए परिवार के मुआवज़े के अधिकार को सही ठहराया।
इसके अलावा टिकट या पास न मिलने को लेकर रेलवे द्वारा उठाई गई आपत्ति को भी कोर्ट ने निराधार बताया। अदालत ने कहा कि मृतक की पत्नी ने ट्रिब्यूनल के सामने वैध लोकल ट्रेन पास और पहचान पत्र प्रस्तुत किए थे, जो सही पाए गए। पास घर पर छूट जाना एक सामान्य मानवीय भूल है, इसके आधार पर पीड़ित परिवार को मुआवज़े से वंचित नहीं किया जा सकता।
अंततः बॉम्बे हाईकोर्ट ने रेलवे की अपील पूरी तरह खारिज करते हुए कहा कि सरकार और रेलवे को यात्रियों की मजबूरी को समझना चाहिए, न कि हर हादसे के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराना चाहिए। कोर्ट ने दो टूक कहा कि भीड़भाड़ के कारण दरवाज़े पर खड़े होकर यात्रा करना मुंबई की ज़मीनी सच्चाई है और इसे अपराध या लापरवाही नहीं माना जा सकता।
